जैव प्रक्रम

जैव प्रक्रम
जीवों में जीवित रहने के लिए होने वाली समस्त क्रियाओं को जैव प्रक्रम कहते हैं।
जैसे- श्‍वसन।

श्‍वसन
जीवों में होने वाली ऐसी क्रिया जिसमें ऑक्सीजन की उपस्थिति में गलूकोज का ऑक्सीकरण होता है। तथा कार्बन डाई ऑक्साइड, जल व ऊर्जा मुक्त होती हो श्‍वसन कहलाती है।
C6H12O6 + 6CO2 + 686KCal

हमारा पंप-हृदय
हृदय एक पेशीय अंग है। जो मुट्ठी के आकार का होता है।
हमारा हृदय चार कोष्ठों में बंटा होता है। ताकि ऑक्सीजनित रुधिर विऑक्सीजनित में न मिल सके।
रुधिर को फेफड़ों में ऑक्सीजन को जोड़ना होता है। और कार्बन डाई ऑक्साइड को हटाना होता है। जब रुधिर फेफड़ों से अपने साथ ऑक्सीजन को जोड़ता है अथवा ऑक्सीजनित होता है तो यह हृदय के बायें आलिन्द में एकत्र होता है। इस दौरान यह शिथिल हो जाता है, तथा बायाँ आलिन्द संकुचित रहता है।

इसके पश्चात एकत्र ऑक्सीजनित रुधिर बांयें आलिन्द से बांयें निलय मे प्रवेश करता है। इस दौरान बायाँ आलिन्द संकुचित हो जाता है तथा बायाँ निलय शिथिल हो जाता है।
बांयें निलय की भित्ती मोटी होती है। जब यह संकुचित होता है तो ऑक्सीजनित रुधिर शरीर के सम्पूर्ण अंग तंत्रो तक पहुँच जाता है। इस प्रकार हमारा हृदय एक पंप की तरह कार्य करता है।
हृदय से रुधिर जिन वाहिनियों से होते हुए विभिन्न अंग तंत्रों तक पहुँचता है, उन्हें धमनी कहते है। 
इनकी भित्ती भी मजबूत व लचीली होती है। क्योंकि रुधिर दाब से अधिक होने से फटने का डर होता है।

विऑक्सीजनित (कार्बन डाइ ऑक्साइड युक्त रुधिर) रुधिर को विभिन्‍न अंग तंत्रो से जो रुधिर वाहिनियाँ वापस हृदय तक लाती हैं, उन्हें शिरा कहते हैं
विऑक्सीजनित रुधिर विभिन्‍न अंग तंत्रों से आकर दायाँ आलिन्द में व दायाँ आलिन्द से दायाँ निलय में प्रवेश करता है। तथा दायाँ निलय से फेफड़ो में प्रवेश करता है। यहाँ से पुन: ऑक्सीजन रुधिर से जुड़ता है और वही चक्र पुन: शुरू हो जाता है। आपने देखा होगा कि विऑक्सीजनित रुधिर को ऑक्सीजनित होने के लिए दो बार हृदय से गुजरना पड़ा है। इसलिए इस तंत्र को दोहरापरिसंचरण तंत्र कहा जाता है।
मनुष्य में पोषण:
मनुष्य एक परपोषी प्राणी है।
मुख में भोजन जाने के बाद उसे चबाया जाता है। साथ ही लार ग्रन्थियों से निकलने वाले लालारस को मिलाया जाता है। इस लाररस की प्रकृति क्षारीय होती है।

लार में उपस्थित लार एमिलेस एन्जाइम मंड के जटिल अणुओं को शर्करा में तोड़ देता है। क्षारीय प्रकृति के कारण लार अम्लीय प्रकृति के रोगाणुओं की नष्ट कर देती है।
इसके बाद भोजन को आमाशय में भेज दिया जाता है। आमाशय से हाइड्रोक्लोरिक अम्ल, पेप्सिन एन्जाइम, श्लेष्मा स्रावित होता है।
जो भोजन में उपस्थित क्षारकीय प्रकृति के रोगाणुओं को नष्ट कर देता है।
इसके बाद भोजन क्षुद्रांत्र में प्रवेश करता है। यह आहारनाल का सबसे लंबा भाग है मांसाहारी जीवों की तुलना में शाकाहारी जीवों की आहरनाल लंबी होती है। क्योंकि सेल्यूलोज पचाने के लिए अधिक लंबी आहारनाल की आवश्यकता होती है।

क्षुद्रांत्र कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा के पाचन का स्थल होता है। यकृत से स्रावित पित्तरस रस भोजन को पुन: क्षारीय बना देता है जिस पर अग्नाश्य से निकलने वाले एन्जाइम क्रिया करते हैं। क्षुद्रांत्र में वसा की गोलिकाओं का खंडन पित्त लवण द्वारा किया जाता है। जिससे इन पर एन्जाइमों की क्रियाशीलता बढ़ जाती है।
अग्नाश्य से स्रावित अग्न्याशयिक रस में ट्रिप्सिन एन्जाइम होता है। जो प्रोटीन का पाचन करता है। तथा इम्लसीकृत वसा के पाचन के लिए लाइपेज एन्जाइम होता है। क्षुद्रांत्र की भित्ती में उपस्थित ग्रंथि आंत्र रस स्रावित करती हैं इसमें उपस्थित एन्जाइम प्रोटीन को अमीनों अम्लों में, कार्बोहाइड्रेट को ग्लूकोज़ में तथा वसा को वसीय अम्ल तथा ग्लेसरोल में परिवर्तित कर देता है।
इस पाचित भोजन को आंत्र के द्वारा अवशोषित किया जाता है। इसके लिए आंत्र में रोम पाये जाते हैं जो अवशोषण का सतही क्षेत्रफल बढ़ा देते हैं। इन दीर्घ रोमों से बहुत अधिक संख्या में रुधिर वाहिकाएँ जुड़ी होती हैं। जो अवशोषित भोजन को शरीर के विभिन्न अंगों तक पहुंचाती है जहाँ इसका उपयोग ऊर्जा प्राप्त करने, नये ऊतको का निर्माण, व पुराने ऊतकों की मरम्मत करने के लिए किया जाता है।

बिना पचे भोजन को बड़ी आंत में भेज दिया जाता है। जहाँ उपस्थित दीर्घरोम जल का अवशोषण कर लेते हैं। अन्य पदार्थ गुदा द्वारा बाहर त्याग दिया जाता है। जिसका नियंत्रण गुदा अवरोधनी द्वारा किया जाता है।
मानव में उत्सर्जन
मानव के उत्सर्जन तंत्र में एक जोड़ी वृक्क, मूत्रवाहिनी, मूत्राशय तथा मूत्रमार्ग होता है। वृक्क उदर में रीढ़ की हड्डी के दोनों और होते हैं।
रुधिर में से छनित नाइट्रोजनी वर्ज्य पदार्थ जैसे यूरिक अम्ल वृक्क में रुधिर से अलग कर लिए जाते हैं। इसके लिए पतली परत के रुप में कोशिकाओं का गुच्छा होता है जो अपशिष्ट पदार्थों को छान लेती हैं। छनित द्रव अपशिष्ट पदार्थ वृक्क से मूत्रवाहिनी में आते हैं। जो मूत्राशय में खुलती है। यहां एकत्र होकर मूत्र मार्ग द्वारा शरीर से बाहर त्याग दिए जाते हैं।
वृकाणु (नेफ्रॉन)
नेफ्रॉन उत्सर्जन तंत्र की संरचनात्मक व क्रियात्मक इकाई होती है। मनुष्य के प्रत्येक वृक्क में लगभग दस लाख अतिसूक्ष्म नलिकाएं होती हैं जिन्हें नेफ्रॉन कहा जाता है।
प्रत्येक नेफ्रॉन का प्रारम्भिक भाग प्याले के समान होता है। जिसे बोमेन सम्पुट कहते हैं। इस बोमेन सम्पुट के प्यालेनुमा भाग में रक्त नलिकाओं का जाल पाया जाता है। जिसे ग्लोमेरूलस कहते हैं।
बोमेन सम्पुट व ग्लोमेरूलस दोनों मिलकर मैलपीगी कोश बनाते हैं। नेफ्रॉन का शेष भाग एक लंबी नलिका के रूप में होता है। वृक्क नलिकाएं आपस में संयोग करके संग्रह वाहिनियों में खुलती हैं। वृक्क की सभी संग्रह वाहिनियां अपनी ओर की मूत्रवाहिनियों में खुलती हैं। प्रत्येक मूत्र वाहिनी का अग्र भाग कीप की तरह चौड़ा होता हैं। जिसे पेल्विस कहते हैं। जबकि मूत्रवाहिनी का पिछला भाग लम्बी नलिका के रूप में होता है जो मूत्राशय में खुलता है।
अनुवांशिकी
जनक से संतति में आनुवांशिक लक्षणों के स्थानान्तरण की क्रिया अनुवांशिकी कहलाती है तथा जो लक्षण स्थानान्तरित होते हैं उन्हें आनुवांशिक लक्षण कहते हैं। अनुवांशिक लक्षण संतति में जनकों के लक्षणों का नियमन करते हैं। जैसे यदि जनकों का रंग गेंहुआ है तो संतति का रंग भी गेंहुआ होगा।

अनुवांशिक पदार्थ दो प्रकार का होता है-
1. RNA
राइबोस न्यूक्लिक अम्ल
2. DNA
डी-ऑक्सी राइबोस न्यूक्लिक अम्ल

1. RNA
सर्वप्रथम खोजा गया अनुवांशिक पदार्थ RNA ही है। इसका पूरा नाम राइबोस न्यूक्लिक अम्ल होता है।
इसमें राइबोस शर्करा उपस्थित होती है।
RNA अनुवांशिक पदार्थ केवल पादप विषाणुओं में पाया जाता है।

2. DNA
लगभग पादप विषणुओं के अलावा सभी सजीवों में पाया जाने वाला अनुवांशिक पदार्थ है। जिसका पूरा नाम डी-ऑक्सी राइबोस न्यूक्लिक अम्ल होता है।
इसमें डी-ऑक्सी राइबोस शर्करा पायी जाती है।

DNA प्रतिकृति:
DNA में अपने समान नया DNA बनाने का गुण पाया जाता है, जिसे DNA की प्रतिकृति कहा जाता है।

DNA की संरचना
डी एन ए का परमाणु मॉडल वाटसन तथा क्रिक ने एक्स-रे निवर्तन के आधार पर प्रस्तुत किया। जिसके आधार पर डी एन की निम्न विशेषताएं होती हैं-

1. डी एन ए में दो श्रृंखलाएं होती है। जिन्हें रज्जुक कहते हैं। ये आपस में कुण्डलीनुमा रूप में होती है। जिसे द्विकुंडलित संरचना कहते हैं।
2. डी एन ए की शर्करा फोस्फेट से जबकि केन्द्रीय भाग नाइट्रोजनी(एडिनिन, गुआनिन, साइटोनिन, थाइमिन) क्षारकों से बना होता है।
3. डी एन ए का व्यास बीस एंग्स्ट्राम होता है।
4. डी एन ए के एक घूर्णन की लम्बाई चौंतीस एंग्स्ट्राम होती है।

5. डी एन ए की दोनों श्रृंखलाओं की दिशा एक दूसरे के विपरीत होती है। एक श्रृंखला की दिशा 3' से 5' तथा दूसरी श्रृंखला की दिशा 5' से 3' होती है।
डी एन ए प्रोटीन संश्लेषण का कार्य करता है।
क्रिक के अनुसार डी एन ए प्रोटीन संश्लेषण का कार्य निम्न प्रकार करता है।
सर्वप्रथम डी एन ए का अनुलेखन आर एन ए में होता है। इसके बाद आर एन ए का रूपान्तरण प्रोटीन संश्लेषण में होता है।

1 Comments

  1. Nice blog post. Thank you so much for sharing. Get to know about the best blood test centres in Kerala.

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