आनुवंशिकता
हम पिछले अध्याय में आनुवंशिकी के बारे में पढ़ चुके हैं। जनकों(पेरेन्टस) से संतति में लक्षणों के स्थानान्तरण की क्रिया अनुवांशिकी कहलाती है। वे पदार्थ जो लक्षणों का स्थानान्तरण करते है ,आनुवंशिक पदार्थ कहलाते हैं। डी एन ए तथा आर एन ए आनुवंशिक पदार्थ कहलाते हैं। लक्षण जनकों से संतति में किस प्रकार स्थानान्तरित होते हैं, तथा किस प्रकार अपना प्रभाव दर्शाते हैं अथवा आनुवंशिकी का अध्ययन आनुवंशिकता कहलाता है।
आनुवांशिक लक्षणों का नियंत्रण जीनों द्वारा किया जाता है। ये अनुवांशिक पदार्थ तथा जीन कोशिका के केन्द्रक में उपस्थित होते हैं।
हम पिछले अध्याय में आनुवंशिकी के बारे में पढ़ चुके हैं। जनकों(पेरेन्टस) से संतति में लक्षणों के स्थानान्तरण की क्रिया अनुवांशिकी कहलाती है। वे पदार्थ जो लक्षणों का स्थानान्तरण करते है ,आनुवंशिक पदार्थ कहलाते हैं। डी एन ए तथा आर एन ए आनुवंशिक पदार्थ कहलाते हैं। लक्षण जनकों से संतति में किस प्रकार स्थानान्तरित होते हैं, तथा किस प्रकार अपना प्रभाव दर्शाते हैं अथवा आनुवंशिकी का अध्ययन आनुवंशिकता कहलाता है।
आनुवांशिक लक्षणों का नियंत्रण जीनों द्वारा किया जाता है। ये अनुवांशिक पदार्थ तथा जीन कोशिका के केन्द्रक में उपस्थित होते हैं।
वंशानुगति
वे लक्षण जो जनकों से संतति में जाते हैं। वंशागत लक्षण कहलाते हैं। तथा यह क्रिया वंशानुगति कहलाती है। वे जीव जिनमें वंशानुगति होती है, वंशानुगत जीव कहलाते हैं।
वे लक्षण जो जनकों से संतति में जाते हैं। वंशागत लक्षण कहलाते हैं। तथा यह क्रिया वंशानुगति कहलाती है। वे जीव जिनमें वंशानुगति होती है, वंशानुगत जीव कहलाते हैं।
आनुवांशिकी का जनक ग्रेगर जोहान मेंडल को कहा जाता है। इनका जन्म 1822 में ऑस्ट्रिया नामक देश में हुआ। उनकी प्ररंभिक शिक्षा गिजाघर में हुई। उसके बाद वियना विश्वविद्यालय में सर्टिफिकेट की परीक्षा में असफल हुए। लेकिन सर्टिफिकेट की परीक्षा में असफल होना उनकी वैज्ञानिक प्रवृति को दबा नहीं सका। इन्होंने चर्च में पादरी का कार्य प्रारंभ कर दिया। तथा चर्च में रहकर मटर के पौधे पर वशांगति के लक्षणों का अध्ययन किया। तथा वंशागति किस प्रकार होती है। उन सबका व्यवस्थित रिकॉर्ड रखा। जो जटिल गणितीय रूप में था। वंशागति पर पूर्ण अध्ययन करने के बाद अपने नोट्स वैज्ञानिक संस्था को दिये उस समय के वैज्ञानिकों को जटिल गणितीय रूप में होने के कारण नोट्सों को समझ नहीं सके अत: अमान्य कर दिये। ये सुनने के बाद मेंडल हार्ट अटेक के शिकार हुए और 1882 में मृत्यु हो गई।
वैज्ञानिकों ने जब अन्य खोजकर्ताओं के नोट्स पढ़े तो पाया की उनके नोट्स मेंढल के नोट्सों का केवल दस प्रतिशत थे। अत: मेंडलवाद की पुन: खोज हुई। मेंडल के जीते जी उनके नोट्सों को मान्यता नहीं मिल सकी। उसके मरने के बाद उसके परिवार वालों को आनुवंशिकी की उपाधि मिली।
आनुवंशिक पदार्थ में आधा आनुवंशिक पदार्थ फिमेल का जबकि आधा आनुवंशिक पदार्थ मेल का होता है। लेकिन संतति में कौनसा प्रभावी होता है। यह मेंडल के प्रयोगों से पता चलता है।
वंशागति में मेंडल का योगदान
वंशागति को समझाने के लिए मेंडल ने दो प्रयोग किए। जिसके लिए उन्होंने नर व मादा में विपर्यासी लक्षणों को चुना। जो प्रभावी एवं अप्रभावी दो प्रकार के होते हैं-
जैसे- मटर के पौधे लम्बे प्रभावी लक्षण है। जबकि मटर के पौधे बौने अप्रभावी लक्षण है।
इसी प्रकार का गोल बीज प्रभावी जबकि झुर्रीदार बीज अप्रभावी लक्षण है।
मटर की फली फूली हुई प्रभावी जबकि पिचकी हुई अप्रभावी।
वंशागति को समझाने के लिए मेंडल ने दो प्रयोग किए। जिसके लिए उन्होंने नर व मादा में विपर्यासी लक्षणों को चुना। जो प्रभावी एवं अप्रभावी दो प्रकार के होते हैं-
जैसे- मटर के पौधे लम्बे प्रभावी लक्षण है। जबकि मटर के पौधे बौने अप्रभावी लक्षण है।
इसी प्रकार का गोल बीज प्रभावी जबकि झुर्रीदार बीज अप्रभावी लक्षण है।
मटर की फली फूली हुई प्रभावी जबकि पिचकी हुई अप्रभावी।
प्रथम प्रयोग
एकल संकर संकरण
एक जोड़ी विपर्यासी लक्षणों वाले जनकों के बीच परागण अथवा संकरण कराने की क्रिया एक संकर संकरण कहलाती है।
मेंडल ने एकल संकर संकरण में एक जोड़ी विपर्यासी लक्षणों वाले जनको को लेकर संकरण कराया तथा प्रथम पीढ़ी प्राप्त की अथवा ऐसे मेल एवं फिमेल को चुना जिनमें एक जोड़ी लक्षण एक दूसरे के विपरित थे।
जैसे-
लम्बे पौधे(TT) एवं बौने पौधे (tt)में संकरण कराया इनमें लम्बा पौधा प्रभावी होता है। संकरण कराने पर अथवा इन पौधों में परागण कराने पर प्रथम पीढ़ी में पाया की सभी संतति पौधे लम्बे पैदा हुए अर्थात् केवल प्रभावी लक्षण ने ही अपना प्रभाव दिखाया। जिसे प्रभाविता का नियम कहा गया।
इस प्रयोग में प्रभावी लक्षण अप्रभावी लक्षणों के प्रभाव को दबा देते हैं।
प्रथम पीढ़ी में चार संतति प्राप्त हुई जो चारों लम्बी थी।
एकल संकर संकरण
एक जोड़ी विपर्यासी लक्षणों वाले जनकों के बीच परागण अथवा संकरण कराने की क्रिया एक संकर संकरण कहलाती है।
मेंडल ने एकल संकर संकरण में एक जोड़ी विपर्यासी लक्षणों वाले जनको को लेकर संकरण कराया तथा प्रथम पीढ़ी प्राप्त की अथवा ऐसे मेल एवं फिमेल को चुना जिनमें एक जोड़ी लक्षण एक दूसरे के विपरित थे।
जैसे-
लम्बे पौधे(TT) एवं बौने पौधे (tt)में संकरण कराया इनमें लम्बा पौधा प्रभावी होता है। संकरण कराने पर अथवा इन पौधों में परागण कराने पर प्रथम पीढ़ी में पाया की सभी संतति पौधे लम्बे पैदा हुए अर्थात् केवल प्रभावी लक्षण ने ही अपना प्रभाव दिखाया। जिसे प्रभाविता का नियम कहा गया।
इस प्रयोग में प्रभावी लक्षण अप्रभावी लक्षणों के प्रभाव को दबा देते हैं।
प्रथम पीढ़ी में चार संतति प्राप्त हुई जो चारों लम्बी थी।
प्रभाविता का नियमप्रभाविता का नियम
एक जोड़ी विपर्यासी लक्षणों वाले जनकों के बीच क्रोस कराने पर केवल प्रभावी लक्षण ही अपना प्रभाव दिखाते हैं। इसे प्रभावित का नियम कहते हैं।
इसके बाद मेंडल ने प्रथम पीढी(f1) के पौधों में संकरण अथवा परागण कराके द्वितीय पीढ़ी(f2)प्राप्त की। तो पाया की चार संततियों में से तीन संततियाँ लम्बी(TT,Tt,Tt) व एक संतति बौनी(tt) पैदा हुई। जिसका कारण मेंडल ने विसंयोजन को बताया।
द्वितीय पीढ़ी में तीन संततियाँ लम्बी व एक संतति बौनी पैदा हुई।
एक जोड़ी विपर्यासी लक्षणों वाले जनकों के बीच क्रोस कराने पर केवल प्रभावी लक्षण ही अपना प्रभाव दिखाते हैं। इसे प्रभावित का नियम कहते हैं।
इसके बाद मेंडल ने प्रथम पीढी(f1) के पौधों में संकरण अथवा परागण कराके द्वितीय पीढ़ी(f2)प्राप्त की। तो पाया की चार संततियों में से तीन संततियाँ लम्बी(TT,Tt,Tt) व एक संतति बौनी(tt) पैदा हुई। जिसका कारण मेंडल ने विसंयोजन को बताया।
द्वितीय पीढ़ी में तीन संततियाँ लम्बी व एक संतति बौनी पैदा हुई।
द्वितीय प्रयोग
द्विसंकर संकरण
दो जोड़ी विपर्यासी लक्षणों वाले जनकों के बीच संकरण कराने की क्रिया द्विसंकर संकरण कहलाती है। अथवा ऐसे जनक जिनमें दो - दो जोड़ी विपरीत लक्षण पाये जाते हों उनमें संकरण कराने की क्रिया द्विसंकर संकरण कहलाती है।
द्विसंकर संकरण में प्रथम पीढी में तो प्रभावी लक्षण अपना प्रभाव दिखाते हैं। लेकिन द्वितीय पीढी में नहीं दिखाते है।
स्वतंत्र अपव्यूहन का नियम
इस नियम का प्रतिपादन भी मेंडल ने किया। जिसके अनुसार द्विसंकर संकरण की प्रथम पीढी से द्वितीय पीढी प्राप्त करने पर प्रत्येक लक्षण की वंशागति स्वतंत्र रूप से होती है। एक लक्षण की वंशागति पर दूसरे लक्षण का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
द्विसंकर संकरण
दो जोड़ी विपर्यासी लक्षणों वाले जनकों के बीच संकरण कराने की क्रिया द्विसंकर संकरण कहलाती है। अथवा ऐसे जनक जिनमें दो - दो जोड़ी विपरीत लक्षण पाये जाते हों उनमें संकरण कराने की क्रिया द्विसंकर संकरण कहलाती है।
द्विसंकर संकरण में प्रथम पीढी में तो प्रभावी लक्षण अपना प्रभाव दिखाते हैं। लेकिन द्वितीय पीढी में नहीं दिखाते है।
स्वतंत्र अपव्यूहन का नियम
इस नियम का प्रतिपादन भी मेंडल ने किया। जिसके अनुसार द्विसंकर संकरण की प्रथम पीढी से द्वितीय पीढी प्राप्त करने पर प्रत्येक लक्षण की वंशागति स्वतंत्र रूप से होती है। एक लक्षण की वंशागति पर दूसरे लक्षण का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
प्रोटीन
वे संरचनाएं जो रोगाणुओं को नष्ट करने में सहायक होती हैं, प्रोटीन कहलाती हैं। प्रोटीन का निर्माण बीस प्रकार के अमीनों अम्लों से होता है।
वे संरचनाएं जो रोगाणुओं को नष्ट करने में सहायक होती हैं, प्रोटीन कहलाती हैं। प्रोटीन का निर्माण बीस प्रकार के अमीनों अम्लों से होता है।
प्रोटीन संश्लेषण
प्रोटीन संश्लेषण का कार्य जीनों द्वारा नियंत्रित होता है। जीनों के पास विशेष प्रकार की प्रोटीन के संश्लेषण के लिए विशेष प्रकार का सूचना होती है। जिसे डी एन ए पढ़कर प्रोटीन का निर्माण करता है। प्रोटीन के संश्लेषण को सेंट्रल ड्रोग्मा सिद्धान्त के आधार पर समझा जा सकता है जिसका प्रतिपादन क्रिक नामक वैज्ञानिक ने किया।
जिसके अनुसार डी एन ए प्रोटीन संश्लेषण निम्न प्रकार करता है।
सर्वप्रथम डी एन ए अनुलेखन कर आर एन ए का निर्माण करता है। इस आर एन ए का रूपान्तरण प्रोटोन में हो जाता है।
प्रोटीन संश्लेषण का कार्य जीनों द्वारा नियंत्रित होता है। जीनों के पास विशेष प्रकार की प्रोटीन के संश्लेषण के लिए विशेष प्रकार का सूचना होती है। जिसे डी एन ए पढ़कर प्रोटीन का निर्माण करता है। प्रोटीन के संश्लेषण को सेंट्रल ड्रोग्मा सिद्धान्त के आधार पर समझा जा सकता है जिसका प्रतिपादन क्रिक नामक वैज्ञानिक ने किया।
जिसके अनुसार डी एन ए प्रोटीन संश्लेषण निम्न प्रकार करता है।
सर्वप्रथम डी एन ए अनुलेखन कर आर एन ए का निर्माण करता है। इस आर एन ए का रूपान्तरण प्रोटोन में हो जाता है।
लिंग निर्धारण
लिंग निर्धारण अथवा संतति में मेल-फिमेल का निर्धारण गुणसूत्रों द्वारा किया जाता है। जो कोशिका में ही उपस्थित होती हैं।
लिंग निर्धारण अथवा संतति में मेल-फिमेल का निर्धारण गुणसूत्रों द्वारा किया जाता है। जो कोशिका में ही उपस्थित होती हैं।
मानव में लिंग निर्धारण
मानव कोशिका में 23 जोड़ी गुणसूत्र पाए जाते हैं। जिनमें से प्रथम 22 जोड़ी गुणसूत्र नर व मादा में एक समान होते हैं। लिंग निर्धारण इन 22 जोड़ी गुणसूत्रों पर निर्भर नहीं करता है। क्योंकि ये नर व मादा में एक समान XX प्रकार के होते हैं। अत: इन्हें अलिंग गुणसूत्र कहा जाता है। अन्तिम 23 वाँ जोड़ा गुणसूत्र नर में XY प्रकार का जबकि मादा में XX प्रकार का होता है। जो लिंग का निर्धारण करता है कि लड़का होगा अथवा लड़की जिसे लिंग गुणसूत्र कहा जाता है। जब नर का X गुणसूत्र मादा के X गुणसूत्र से मिलता है। तो XX प्रकार का गुणसूत्र का बनता है। जो की मादा गुणसूत्र है। अत: लड़की का जन्म होता है। लेकिन यदि नर का Y गुणसूत्र मादा के X गुणसूत्र से मिलता है। तो XY प्रकार का गुणसूत्र बनता है। जो नर गुणसूत्र है। अत: लड़के का जन्म होता है।
मानव कोशिका में 23 जोड़ी गुणसूत्र पाए जाते हैं। जिनमें से प्रथम 22 जोड़ी गुणसूत्र नर व मादा में एक समान होते हैं। लिंग निर्धारण इन 22 जोड़ी गुणसूत्रों पर निर्भर नहीं करता है। क्योंकि ये नर व मादा में एक समान XX प्रकार के होते हैं। अत: इन्हें अलिंग गुणसूत्र कहा जाता है। अन्तिम 23 वाँ जोड़ा गुणसूत्र नर में XY प्रकार का जबकि मादा में XX प्रकार का होता है। जो लिंग का निर्धारण करता है कि लड़का होगा अथवा लड़की जिसे लिंग गुणसूत्र कहा जाता है। जब नर का X गुणसूत्र मादा के X गुणसूत्र से मिलता है। तो XX प्रकार का गुणसूत्र का बनता है। जो की मादा गुणसूत्र है। अत: लड़की का जन्म होता है। लेकिन यदि नर का Y गुणसूत्र मादा के X गुणसूत्र से मिलता है। तो XY प्रकार का गुणसूत्र बनता है। जो नर गुणसूत्र है। अत: लड़के का जन्म होता है।
लिंग गुणसूत्र
वे गुणसूत्र जो लिंग निर्धारण करने के लिए उत्तरदायी होते हैं, लिंग गुणसूत्र कहलाते हैं। जैसे मानव में अन्तिम 23 वाँ जोडा़ गुणसूत्र।
वे गुणसूत्र जो लिंग निर्धारण करने के लिए उत्तरदायी होते हैं, लिंग गुणसूत्र कहलाते हैं। जैसे मानव में अन्तिम 23 वाँ जोडा़ गुणसूत्र।
अलिंग गुणसूत्र
वे गुणसूत्र जो लिंग का निर्धारण करने के लिए उत्तरदायी नहीं होते हैं, अलिंग गुणसूत्र कहलाते हैं। जैसे मानव में प्रथम 22 जोड़ी गुणसूत्र।
वे गुणसूत्र जो लिंग का निर्धारण करने के लिए उत्तरदायी नहीं होते हैं, अलिंग गुणसूत्र कहलाते हैं। जैसे मानव में प्रथम 22 जोड़ी गुणसूत्र।
जैव विकास
पृथ्वी पर भिन्न-भिन्न जातियों के उद्भव एवं विकास को ही जैव विकास कहा जाता है।
पृथ्वी पर भिन्न-भिन्न जातियों के उद्भव एवं विकास को ही जैव विकास कहा जाता है।
विकास का प्रमुख कारण जीवों में जनन के द्वारा उत्पन्न विभिन्न्ताएं होती हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी जीवों में परिवर्तन होते हैं। जिससे एक ही जाति की कई प्रजातीयां बन जाती हैं। जब हम विकास की बात करते हैं तो हम चार्ल्स रोबर्ट डार्विन नामक वैज्ञानिक को याद करते हैं।
इनका जन्म 1809 में हुआ। तथा 1882 में मृत्यु हुई। इन्होंने विकास का अध्ययन करने के लिए 22 वर्ष की आयु में विभिन्न द्वीपों पर समुद्री जहाज से भ्रमण किया।
भ्रमण करने के बाद निम्न बातें बतायी-
- वे जीव जिनमें उत्पन्न विभिन्नताएं जीव को वातावरण के अनुकूल बनाती हैं। वे जीव जीवित रह पाते हैं। अन्यथा स्पीशिज का अस्तित्व समाप्त हो जाता है।
जैसे- भृंग में विभिन्नताओं के कारण अलग-अलग रंगो वाले भृंगो का विकास हुआ। ये हरी पत्तियों पाए जाते हैं। अत: इन्हें कौआ आसानी से खा जाता था। अत: ये नष्ट हो गये। जिसका कारण प्रतिकूल विभिन्नताएं थी। जबकि विभिन्नताओं के कारण ही हरे रंग के भृंग का विकास हुआ जो पत्ती पर कौए को नहीं दिखाई देता। अत: इसका खूब विकास हुआ। जिसका करण अनुकूल विभिन्नताएं थी।
इनका जन्म 1809 में हुआ। तथा 1882 में मृत्यु हुई। इन्होंने विकास का अध्ययन करने के लिए 22 वर्ष की आयु में विभिन्न द्वीपों पर समुद्री जहाज से भ्रमण किया।
भ्रमण करने के बाद निम्न बातें बतायी-
- वे जीव जिनमें उत्पन्न विभिन्नताएं जीव को वातावरण के अनुकूल बनाती हैं। वे जीव जीवित रह पाते हैं। अन्यथा स्पीशिज का अस्तित्व समाप्त हो जाता है।
जैसे- भृंग में विभिन्नताओं के कारण अलग-अलग रंगो वाले भृंगो का विकास हुआ। ये हरी पत्तियों पाए जाते हैं। अत: इन्हें कौआ आसानी से खा जाता था। अत: ये नष्ट हो गये। जिसका कारण प्रतिकूल विभिन्नताएं थी। जबकि विभिन्नताओं के कारण ही हरे रंग के भृंग का विकास हुआ जो पत्ती पर कौए को नहीं दिखाई देता। अत: इसका खूब विकास हुआ। जिसका करण अनुकूल विभिन्नताएं थी।
- डार्विन ने बताया की जीवों में जीवित रहने के लिए अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जीवन संघर्ष होता है। जो जीव संघर्ष मे सफल होते हैं। केवल वे जीव ही जीवित रह पाते हैं।
प्रकृति ऐसे जीवों का ही वर्ण करती है। जिसे प्राकृतिक वर्ण का सिद्धांत कहा।
प्रकृति ऐसे जीवों का ही वर्ण करती है। जिसे प्राकृतिक वर्ण का सिद्धांत कहा।
विकास एवं वर्गीकरण
विकासीय वर्गीकरण में प्राणियों के अंगो की उत्पत्ति एवं कार्य आधार पर दो वर्गों में बाँटा है-
विकासीय वर्गीकरण में प्राणियों के अंगो की उत्पत्ति एवं कार्य आधार पर दो वर्गों में बाँटा है-
1. समजात अंग
वे अंग जिनकी उत्पत्ति समान किन्तु कार्य अलग-अलग होते हैं, समजात अंग कहलाते हैं।
जैसे- मेंढक, छिपकली, पक्षी, मानव के अग्रपाद।
इनकी संरचनाई उत्पत्ति एक समान किन्तु कार्य भिन्न-भिन्न होते हैं।
वे अंग जिनकी उत्पत्ति समान किन्तु कार्य अलग-अलग होते हैं, समजात अंग कहलाते हैं।
जैसे- मेंढक, छिपकली, पक्षी, मानव के अग्रपाद।
इनकी संरचनाई उत्पत्ति एक समान किन्तु कार्य भिन्न-भिन्न होते हैं।
2. समरूप अंग
वे अंग जिनकी उत्पत्ति भिन्न-भिन्न किन्तु कार्य समान होते हैं, समरूप अंग कहलाते हैं।
जैसे- चमगादड़ एवं पक्षी के पंख।
इनकी संरचनाई उत्पत्ति अलग-अलग किन्तु कार्य समान होते हैं।
वे अंग जिनकी उत्पत्ति भिन्न-भिन्न किन्तु कार्य समान होते हैं, समरूप अंग कहलाते हैं।
जैसे- चमगादड़ एवं पक्षी के पंख।
इनकी संरचनाई उत्पत्ति अलग-अलग किन्तु कार्य समान होते हैं।
जीवाश्म
लाखों करोड़ों वर्ष पुराने मिट्टी अथवा चट्टानों में दबे मृत जीवों को जीवाश्म कहा जाता है। जीवाश्मों से जैव विकास के क्रम का पता चलता है।
लाखों करोड़ों वर्ष पुराने मिट्टी अथवा चट्टानों में दबे मृत जीवों को जीवाश्म कहा जाता है। जीवाश्मों से जैव विकास के क्रम का पता चलता है।
विकास के चरण
विकास का प्रमुख कारण विभिन्नताएं होती है। जिससे जीव का आकार एवं आकृति भी परिवर्तित हो जाती है। विभन्नताएं जीव में धीरे-धीरे परिवर्तन लाती हैं। जिससे लाखों करोड़ो पीढ़ियों के बाद एक नयी जाति का विकास हो जाता है। जिसका पता जीवाश्मों के अध्ययन से चलता है।
जैसे- डायनोसोर एक विशालकाय जीव था। जिसके पंख नहीं पाए जाते थे। जिसका विभिन्नताओं के कारण पक्षियों में रूपान्तरण हो गया।
इसी प्रकार जंगली गोभी को किसान खाद्य पौधों के रूप में उगाता था। इसके कृत्रिम चयन(विभिन्नताओं) से विभिन्न सब्जियों का विकास हुआ।
विकास का प्रमुख कारण विभिन्नताएं होती है। जिससे जीव का आकार एवं आकृति भी परिवर्तित हो जाती है। विभन्नताएं जीव में धीरे-धीरे परिवर्तन लाती हैं। जिससे लाखों करोड़ो पीढ़ियों के बाद एक नयी जाति का विकास हो जाता है। जिसका पता जीवाश्मों के अध्ययन से चलता है।
जैसे- डायनोसोर एक विशालकाय जीव था। जिसके पंख नहीं पाए जाते थे। जिसका विभिन्नताओं के कारण पक्षियों में रूपान्तरण हो गया।
इसी प्रकार जंगली गोभी को किसान खाद्य पौधों के रूप में उगाता था। इसके कृत्रिम चयन(विभिन्नताओं) से विभिन्न सब्जियों का विकास हुआ।
विकास को प्रगति के समान नहीं मानना चाहिए क्यों?
विकास को प्रगति के समान नहीं मानना चाहिए क्योंकि विकास में नयी जाति के उद्भव के लिए पूर्वज जाति समाप्त हो जाती है।
विकास को प्रगति के समान नहीं मानना चाहिए क्योंकि विकास में नयी जाति के उद्भव के लिए पूर्वज जाति समाप्त हो जाती है।
मानव का विकास
मानव का विकास चिम्पैंज़ी से हुआ है। जिसके पूर्वज नर वानर थे।
चिम्पैंज़ी से सीधे चलने वाले आदि मानव का विकास हुआ जो घास स्थलों में रहता था। तथा पत्थर से शिकार कर मांस खाता था। विकास के क्रम में आधुनिक मानव का विकास हुआ। जिसका वैज्ञानिक नाम होमोसेपियंस है। तथा विकास के क्रम में आने वाला मानव होमोफ्यूचेरिस होगा।
मानव का विकास चिम्पैंज़ी से हुआ है। जिसके पूर्वज नर वानर थे।
चिम्पैंज़ी से सीधे चलने वाले आदि मानव का विकास हुआ जो घास स्थलों में रहता था। तथा पत्थर से शिकार कर मांस खाता था। विकास के क्रम में आधुनिक मानव का विकास हुआ। जिसका वैज्ञानिक नाम होमोसेपियंस है। तथा विकास के क्रम में आने वाला मानव होमोफ्यूचेरिस होगा।
यदि एक चूहे की पूँछ काट दी जाए तो क्या उत्पन्न संतान की भी पूँछ कटी हुई होगी?
नहीं यह संभव नहीं। क्योंकि पूँछ काट देने से कोशिका में उपस्थित जनन जीन नष्ट नहीं होती। यदि किसी लक्षण का नियंत्रण करने वाली जीन नष्ट हो जाती है तो वह लक्षण समाप्त हो जाता है। लक्षण के काटने से संतान में वह लक्षण नष्ट नहीं होता है। क्योंकि लक्षण का नियंत्रण करने वाली जीन उपस्थित होती हैं।
नहीं यह संभव नहीं। क्योंकि पूँछ काट देने से कोशिका में उपस्थित जनन जीन नष्ट नहीं होती। यदि किसी लक्षण का नियंत्रण करने वाली जीन नष्ट हो जाती है तो वह लक्षण समाप्त हो जाता है। लक्षण के काटने से संतान में वह लक्षण नष्ट नहीं होता है। क्योंकि लक्षण का नियंत्रण करने वाली जीन उपस्थित होती हैं।
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